March 29, 2024

सारंगपुर। गृहणियों को सुविधा देने के लिए बनी उज्जवला योजना चुल्हे में जलती और धुएं में उडती दिख रही है। गैस चुल्हे अलमारी में बंधे रखे हैं सिलिंडर परिवार के लिए परेशानी बन गए। 15 किलो का एक सिलिंडर 1128.50 रुपए में मिल रहा है। सब्सिडी का गणित मजदूर परिवारों को समझ नहीं आ रहा। बुकिंग के बाद गांव तक ले जाने में सिलिंडर 12 से साढ़े 1200 रुपए का पड जाता है। मजदूर परिवार के मुखिया कहते हैं रोज की जरूरत का सामान लाएं, बच्चों को पढाएं, दवा बीमारी पर खर्च करें या सिलिंडर भरवाएं। एक बार सिलिंडर लेने में हजार रुपए खर्च आता है। ग्रामीणों ने गैस चुल्हा बांधकर घर के किसी कोने में पटक दिए और आसपास से बीनकर लाई लकडी से ही चुल्हा जला रहे हैं। जहां संभव हो रहा है वहां 3- 4 माह में एक बार सिलिंडर ले रहे हैं। पूरा भोजन बनाने की बजाए गरम करने जैसे छुट-पुट काम इस पर कर लेते हैं। सिलिंडर में लगी कीमत की आग के कारण उज्जवला लेकर भी गृहणियां चुल्हे पर धुएं में खाना बनाने को मजबूर हैं।
मिलने के बाद दूसरी बार सिलिंडर भरवाने नहीं आए
भारत गैस योगिता गैस एजेंसी के वितरण प्रभारी अजय प्रजापति कहते हैं, उज्जवला योजना में लगभग 7 हजार 500 हितग्राही हमारी एजेंसी से लाभांवित किए गए है। जिनको कनेक्शन मिले उनमें से लगभग 20 से 30 प्रतिशत दूसरी बार सिलिंडर भरवाने नहीं आए। इनमें उपभोक्ता करीब 1700 उपभोक्ता 1 साल में एक बार ही सिलिंडर लेने आते हैं। सारंगपुर से 12 किमी दूर स्थित मगराना गांव की मांगू बाई के घर में गैस चुल्हा कोने में बंधा रखा है। मजदूरी करने वाला उनका बेटा परिवार चलाने लायक ही कमा पाता है। गैस टंकी का खर्च नहीं निकलता इसलिए घर में टंकी और चुल्हा रख दिया है। बरूखेंडी की रूकमणी कहती है कि 6 माह में एक बार टंकी भरवाती है। अभी केवल एक बार ही गैस सिलिंडर भरवाया है।
मंहगा सिलिंडर है योजना की सफलता में बाधा
केंद्र सरकार ने बहुत उम्मीद से सब्सिडी पर सिलिंडर दिए। योजना से बेरुखी ऐसी है कि उपभोक्ताओं ने सिलिंडर पैक करके रख दिया। पड़ाना में रहने वाली बबीता बाई बताती हैं परिवार में 5 सदस्य हैं। परिवार मजदूरी से पल रहा है। ऐसे में 1128.50 रुपए एक मुश्त देकर सिलिंडर लेना महंगा पड रहा है। इसलिए उन्होंने अभी तक एक बार भी सिलिंडर रिफिल नहीं कराया और चुल्हें पर ही काम करती है। सारंगपुर की सुनिता, लक्ष्मीबाई कहती है कि सिलिंडर महंगा होने से 1 साल से एक ही चुल्हे पर खाना बना रही हैं। खर्च आपस में बांट लेती हैं। गांवों में अभी भी चुल्हे पर खाना बन रहा है।